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रामचरित मानस


चौपाई :

* एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा॥

कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥1॥


भावार्थ:-एक पिता के बहुत से पुत्र पृथक-पृथक्‌ गुण, स्वभाव और आचरण वाले होते हैं। कोई पंडित होता है, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई शूरवीर, कोई दानी,॥1॥


* कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई॥

कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥2॥


भावार्थ:-कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिता का प्रेम इन सभी पर समान होता है, परंतु इनमें से यदि कोई मन, वचन और कर्म से पिता का ही भक्त होता है, स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता,॥2॥


* सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना॥

एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते॥3॥


भावार्थ:-वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्रिय होता है, यद्यपि (चाहे) वह सब प्रकार से अज्ञान (मूर्ख) ही हो। इस प्रकार तिर्यक्‌ (पशु-पक्षी), देव, मनुष्य और असुरों समेत जितने भी चेतन और जड़ जीव हैं,॥3॥


*अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया॥

तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरु काया॥4॥


भावार्थ:-(उनसे भरा हुआ) यह संपूर्ण विश्व मेरा ही पैदा किया हुआ है। अतः सब पर मेरी बराबर दया है, परंतु इनमें से जो मद और माया छोड़कर मन, वचन और शरीर से मुझको भजता है,॥4॥


दोहा :

* पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।

सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥87 क॥


भावार्थ:-वह पुरुष हो, नपुंसक हो, स्त्री हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो, कपट छोड़कर जो भी सर्वभाव से मुझे भजता है, वही मुझे परम प्रिय है॥87 (क)॥


सोरठा :

* सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।

अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब॥87 ख॥


भावार्थ:-हे पक्षी! मैं तुझसे सत्य कहता हूँ, पवित्र (अनन्य एवं निष्काम) सेवक मुझे प्राणों के समान प्यारा है। ऐसा विचारकर सब आशा-भरोसा छोड़कर मुझी को भज॥87 (ख)॥


चौपाई :

* कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही॥

प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ॥1॥


भावार्थ:-तुझे काल कभी नहीं व्यापेगा। निरंतर मेरा स्मरण और भजन करते रहना। प्रभु के वचनामृत सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था। मेरा शरीर पुलकित था और मन में मैं अत्यंत ही हर्षित हो रहा था॥1॥


* सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना॥

प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किम सकहिं तिन्हहि नहिं बयना॥2॥


भावार्थ:-वह सुख मन और कान ही जानते हैं। जीभ से उसका बखान नहीं किया जा सकता। प्रभु की शोभा का वह सुख नेत्र ही जानते हैं। पर वे कह कैसे सकते हैं। उनके वाणी तो है नहीं॥2॥


* बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई॥

सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितई मातु लागी अति भूखा॥3॥


भावार्थ:-मुझे बहुत प्रकार से भलीभाँति समझकर और सुख देकर प्रभु फिर वही बालकों के खेल करने लगे। नेत्रों में जल भरकर और मुख को कुछ रूखा (सा) बनाकर उन्होंने माता की ओर देखा- (और मुखाकृति तथा चितवन से माता को समझा दिया कि) बहुत भूख लगी है॥3॥

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